Sunday 14 October 2018

विवशता



एक के बाद एक
फँसते जा रहे हैं हम
समस्याओं के,
दुर्भेद चक्रव्यूह में

चाहते हैं,
चक्रव्यूह से बाहर निकल,
मुक्त हो जाएँ हम भी
रोज प्रत्यंचा चढ़ जाती है,
लक्ष्य बेधन के लिए
लेकिन असमर्थताएँ
परास्त कर जाती हैं
हर तरफ से।

शायद-
हो गये हैं हम भी,
अभिमन्यु की तरह।
काश,
इससे निकलने का भेद भी
बतला ही दिया होता
अर्जुन ने ।

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)

Thursday 16 August 2018

हजारों रंग ख़ुशबू से बना गुलदान है भारत


हज़ारों रंग ख़ुशबू से  बना गुलदान है भारत
कई तहज़ीब,भाषा,धर्म की पहचान है भारत

कहीं गिरजा, कहीं मस्जिद, शिवाला और गुरुद्वारा
कभी होली कभी क्रिसमस कभी रमज़ान है भारत

कोई नफ़रत भी बोता तो पनपती है मोहब्बत ही
अज़ब जादू है माटी में, कोई वरदान है भारत

चलो मिलकर बचाएँ हम इसे फ़िरक़ापरस्ती से
न तेरा है, न मेरा है हमारी जान है भारत

नहीं पूरे हुए सपने, करे उम्मीद भी कब तक
मचलता है जो सीने में वही अरमान है भारत

इसे सींचा लहू देकर भगत अशफाक़ बिस्मिल ने
पुराणों वेद की धरती जहाँ की शान है भारत

ये वहशी दौर है 'हिमकर' नहीं महफ़ूज़ है कोई
हवाएँ  देख  नफ़रत की बहुत हैरान है भारत 

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)

Thursday 24 May 2018

भीड़ का रहनुमा




वह रहता है हरदम
युवाओं के कंधे पर सवार
रचता है मन्त्र उन्माद का और
फूँक देता है क्षुब्ध नौजवानों के कानों में
वह करता है
आदमी को उन्मादी भीड़ में तब्दील
हाँक कर ले जाता है अपना शिकार
बनाता है हथियार
वह करता है कातिलों का झुंड तैयार
बनाता है भय का माहौल
वह करता है ऐसा प्रबन्ध कि
हो जाये तहस नहस सब कुछ
समाज, विचार और सम्वेदना
वह कब्जा कर लेता है
बुद्धि और विवेक पर

मुश्किल है निकल पाना उनका
जो शामिल हैं भीड़ में, झुंड में
छीन लिया जाता है उनसे
सोचने, समझने का सामर्थ्य
भीड़ बन करते हैं लोग अपराध
बन जाते हैं वहशी और क्रूर
नाचते हैं अदृश्य इशारों पर
वीभस्त होता है भीड़ का चेहरा

घूमता हैं सभ्य मुखौटे में
भीड़ का अदृश्य रहनुमा
छिपा लेता है खुद को
हिंसक भीड़ की आड़ में
रगो में दौड़ती है उसकी
अमानुषिक बर्बरता।

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)




Tuesday 24 April 2018

बलवाइयों में लोग


मसरूफ़ आप में हैं, कहाँ फुर्सतों में लोग
बस कहने को बचे हैं शनासाइयों में लोग

उकता गये हैं रोज के इन हादसों से अब
डूबे हुए हैं ख़ौफ़ की गहराइयों में लोग

आँखों में ख़्वाब और थे, ताबीर और है
सपने बिखरते देख के मायूसियों में लोग

तदबीर से नसीब बदल कर नहीं देखे
तक़दीर कोसते रहे दुश्वारियों मे लोग

मजबूरियाँ तो हर तरफ़ आती यहाँ नज़र
हैरत से देखता हूँ बड़ी मुश्किलों में लोग

सारा सुकून छीन गया चैन अब किसे
आता नहीं क़रार, परेशानियों में लोग

गंग-ओ- जमन रवायतें जाने किधर गयीं
रिश्तों में तल्खियाँ हैं, फँसे साजिशों में लोग

कितना अज़ीब दौर है अहसास मर चुका
फ़ित्ने फ़साद बढ़ रहे,बलवाइयों में लोग

अफ़सोस है यही कि कोई बोलता नहीं
चुपचाप क्यूँ खड़े हैं तमाशाइयों में लोग

दुनिया को देख ले कभी हिमकर करीब से
सबकुछ गवाँ के बैठे हैं रंगीनियों में लोग

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)